मेवाड़ के प्रसिद्ध लोकनाट्य गवरी नृत्य की धूम ठण्डी राखी के दिन से शुरू हुई। पिछली बार कोरोना संक्रमण के कारण गवरी मंचन नहीं हुआ। वही इस बार भी कोरोना संक्रमण के कारण गावों में गवरी कम ही ली गई हैं।गवरी :-
मेवाड़ में भीलो का यह सामुदायिक गीत नाट्य अत्यन्त चित्ताकर्षक एवं पारम्परिक रीति-रिवाज से युक्त है। इसमें प्रयोग किए जाने की बहुत सम्भावनाएँ हैं। इसका सांगीतिक लय गीतात्मक रुप प्रयोग के अनुकूल है। गवरी का संचालन एवं नियंत्रण संगीत द्वारा होता है।
जैसा कि पहले बताया गया है, अरावली क्षेत्रों में रहने वाले भील, प्रत्येक वर्ष ४० दिनों का गवरी समारोह उदयपुर शहर के आसपास के क्षेत्रों में आकर सम्पन्न करते हैं। यह समारोह मानसून की समाप्ति के अवसर पर किया जाता है। इस समारोह का रुप रंगमंचीय ही है, यह सांस्कृतिक, कलात्मक एवं रंगमंचीय अभिनय तीनों ही दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध लोक नाट्यशैली है। भीलों जैसे आदिम कबीलों द्वारा सभी दृष्टि से उत्कृष्ट यह आयोजन विस्मय में डाल देता है।
राजस्थान की आदिम जातियों में से एक भील जाति ने इस क्षेत्र में अत्यन्त प्राचीनकाल से निवास किया हुआ है। इनकी शौर्यपूर्ण गाथाएँ, इनकी रंगीन संस्कृति की धरोहर है। हिन्दू पुराण गाथाओं के सम्मिश्रण से बना भील समुदाय का यह गवरी लोकनाट्य इस आदिम समुदाय की ऐतिहासिक परम्परा को उजागर करता है व सामुदायिक सीमाओं के बाहर जाकर चिरकाल की परम्पराओं के अंगीकरण का यह अपने आप में एक सुन्दर दृष्टान्त बन गया है।
अगस्त के महीने में रक्षाबन्धन के दूसरे दिन भील व भोपा जाति के लोग किसी मंदिर के आगे इकट्ठे होते हैं और देवी “गवरी” का आह्मवान करते हैं, वे उसे अपना आतिथ्य ग्रहण करने की मनौती करते हैं। धान्य बीज प्रतिमा पर फेंककर चढ़ाए जाते हैं। यदे ये प्रतिमा के दाहिनी ओर गिर जाते हैं तो इसे माता “गवरी’ की स्वीकृति माना जाता है, परन्तु बांयी और गिरने पर इसे देवी की “मनाही’ मानी जाती है। अब यदि देवी का उत्तर हाँ में है तो व्यापक स्तर पर साजो-सामान, जवाहरात, वेशभूषा तथा रंगमंच की सामग्री सभी समारोह के लिए एकत्र की जाती है।
गवरी की कथा में कथानक या सहकथानक क्रमबद्ध नहीं होते, परन्तु फिर भी मूल गाथा से इनका सम्बन्ध होता है और उसके साथ तारतम्य दिकाना ही इनका लक्ष्य है। ये बिखरे हुए कथानक युद्ध, पराजय, मृत्यु तथा अन्तत: जीवात्मा के पुनर्जीवित हो उठने से सम्बद्ध होते हैं। यह पुनर्जीवन देवी की कृपा से मिलता हुआ दिखलाया जाता है।
“नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा’ से दिक्षित भानु भारती ने “पशु गायत्री’ नाम का एक नाट्य अनेक बार मंचित किया है। यह प्रयोग अपनी कलात्मक अभिव्यंजना के लिए विज्ञप्त है। इस नाट्य विद्या का माध्यम इतना जीवंत है कि इसे शिक्षा और विकास के कार्यक्रमों से भी जोड़ जो सकता है। गवरी के नवीन रुपान्तरण की दृष्टि से भानु भारती के “पशु गायत्री’ का अपना महत्तव है।
गवरी की मुख्य विशेषताएँ निम्ननिखित हैं –
(1) जुलाई, अगस्त के महीने में “बूढिया देन’ की पूजा के अवसर पर “गवरी’ सम्पन्न किया जाता है।
(2) भील अपना घर छोड़कर सामुदायिक समारोह के विचारों से बंधकर “गवरी’ में भाग लेने आते हैं और ४० दिनों तक लगातर वहीं रहते हैं।
(3) गवरी सुबह से शाम तक प्रतिदिन चलता रहता है।
(4) इनमें भाग लेने वाले नर्तक, अभिनेता और गायक सभी उत्साह व उल्लास से भरे होते हैं।
गवरी के कुछ मुक्य प्रसंग है – देवी अम्बड़, बादशाह की सवारी, मिन्यावड़, बनजारा, खाड़लिया भूत थात शेर सूअर की लड़ाई। ये सभी प्रसंग प्रतीकार्थक हैं।
रिपोर्टर प्रहलाद पुजारी अंबाजी